यूँ सर-ए-आम …

यूँ सरआम मत लो अँगड़ाई,
कल अख़बार में जाने कितने घायल मिलेंगे
अपनी लरज़ती कमर के जो बिखेरती हो  क़रीने
तुम्हारी गलियाँ तो आबाद बाक़ी शहर बरबाद मिलेंगे
समेट लो दराज़ काकुल फिर से धूप कर दो
दीदआफ़ताब की रातों को सहर मिलेंगे
कोई ख़त में अपने होंठों के दो महकते चाँद दे दो
तुम्हारे आशिक़ रात को छत पे नहीं बिस्तर पे बेहाल मिलेंगे
यहाँ कारोबार इतवार की बंद दुकान है
तुम सँवरना कम कर दो बेरोज़गार कम मिलेंगे
छू के गुज़री है अल्हड़ सबा तुम्हारे शाख़ से
अब संदल से हर सिम्त मुश्क़बार मिलेंगे
जाओ कह दो कोई उन नीमकश आँखों से कि सो जाएँ
आज जां बाक़ी रही नहीं क़त्ल होने अब कल मिलेंगे
*A couplet is inspired by a ghazal of Dr. Bashir Badr.
 

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