जानेमन

ना बिखेरते वो रुख़-ए-फ़रोज़ाँ पे ज़ुल्फ़ें
क्या चाँद सूरज क्या दिन और रात होता

उठे जो पलक रंग-ओ-आहंग जी उठता
झुके तो शाम-ए-उदास फ़ना होता

घुल जाएँ इक दूजे में दिलसोज़ ज़ायका बन
मैं अब्र की ठंडी नमीं वो धूप का अफ़्शाँ होता

दिल-ए-बेकल भटका है फ़लक पे
एक सुकूनगाह नशेमन अपना भी होता

वो रोज़ नहाते हैं सितारों की बौछार में
काश मैं भी किसी रात का मंज़र होता

पूछे वो हमसे मैं नहीं होती तो क्या होता
मेरे जज़्बात खोखले मेरा शेर अधूरा होता

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