शब-ए-फ़िराक़

ये चाँद क्यूँ धुआँ-धुआँ सा है,
ये रातें भी सुलग रही हैं क्या

बिस्तर की सिलवटें रुस्वा हैं अब
वो छत पे अकेली टहल रही है क्या

मेरी कविताओं में मुझे देख के
कहीं बर्फ़ सी पिघल रही है क्या

ख़्वाबों का शहर आज बयाबां सा है
सन्नाटे हंगामी नींद भटक रही है क्या

भीड़ में भी कुछ कमी सी है,
इन हँसी में एक हँसी बाक़ी है क्या

हया की सुर्ख़ी को पयाम आया होगा
मेरा नाम सीने पे लिख रही है क्या

मैं झुकती निगाहों के लिए तरसता हूँ,
वो भी नज़र झुकाने को तड़प रही है क्या

जो तुम आओ तो लिपट जाऊँ तुमसे
जिस्म फ़ितूरी रूह दहक रही है क्या

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