अच्छा सुनो,
बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं
कुछ लिखो ना …
मेरी आँखों पे ना सही
उनपे चढ़े चश्मे पे लिखो
काजल की महीन लकीर पे लिखो
बालों की ख़ुशबू लपेटे हुए
मेरे जूड़े पे लिखो
मेरी बाली, मेरी अँगूठियों पे लिखो
पाँव में बँधे काले धागे पे लिखो
मेरा चेहरा, मेरी काया नहीं तो
मेरे सिंगार पे लिखो
तुम्हारे मेसेज के दरमियाँ
जो वक़्त गुज़रता है
वही हिज्र है मेरे लिए
तुम उस हिज्र पे लिखो
कुछ नहीं तो मेरी कमियों पे लिखो
मैं जो दिमाग खाती हूँ, टाँग खींचती हूँ
मेरी ज़िद्द, मेरे उज्जड़पन पे लिखो
मेरे मुँह फुलाने पे
स्काईप पे रूठने-मनाने पे लिखो
चहक के “हेलो” बोलने
और फ़ोन रखते समय
बुझे दिल से “बाए” बोलने पे लिखो
तुम्हारी रचनाएँ एक आईना है
मैं इसमें सबसे खुबसूरत, सबसे सच्ची हूँ
तुम्हारी रचनाएँ एक कैन्वस है
जिसपे हमारे इश्क का रंग छिड़का है
तुम्हारी रचनाएँ एक किताब है
जिसे बार-बार पढ़ने से भी जी नहीं भरता
वो किताब, जो आपको बदल देती है
वो किताब, जो मैं रोज़ सोने से पहले पढ़ती हूँ
तुम्हे पढ़ती हूँ तो
बगिया और सब्ज़ हो जाती है
धूप और गुनगुनी हो जाती है
चाय और मीठी हो जाती है
बड़े दिनों से ऐसी सुबह नहीं हुई
ऐसी एक सुबह लिखो
फिर कुछ लिखो ….