मुंतज़िर

चुप सी हैं गुम सी हैं
ये बारिशें भी तुम सी हैं

कल बरसी थीं ज़ोरों से
आज बहुत मासूम सी हैं

घटाएँ भूल गईं गरजना
झटासें भी कुछ कम सी हैं

जो गुज़र रहीं बिन तुम्हारे
ये रातें गुमसुम सी हैं

रह रह के उठती हैं
तेरी यादें तलातुम सी हैं

नींद रश्क खा के बैठी है
बेख्वाबियाँ अंजुम सी हैं

अंगीठी में सुलग रहीं रातें
यहाँ वीरानियाँ हुजूम सी हैं

सावन में भी मन भींग नहीं रहा
ख़्वाहिशें पतझड़ के मौसम सी हैं

चहकती हो जब बाँहों में
साँसें मेरी तरन्नुम सी हैं

लम्स तेरे होठों का माथे पे
तुमसे शामें कुमकुम सी हैं

जब से गई हो जानम
महफ़िलें सुन्न सी हैं

न मैं शगुफ़्ता न तुम शगुफ़्ता
तबस्सुम कहाँ तबस्सुम सी हैं

तुम आओ तो कुछ सुलझे
उलझनों की तसादुम सी हैं

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