तब और अब

थोड़ी सी सुधरी हो या
अब भी वैसी बिगड़ी हो
क्या नाक पे गुस्सा मुँह पे गाली
अंदाज़ पुराना वो ही है ?

पनघट पे अल्हड़ पनिहारिन सी
क्या आज भी वैसे मटकती हो
क्या गोल घड़े सा बदन तुम्हारा
गुदाज पुराना वो ही है ?

क्या अब भी खाने के प्लेट से
चावल के दाने गिराती हो
फिर सकुचा जाना आँखें झुकाना
लाज पुराना वो ही है ?

क्या जूड़े में अपने बाँध अब
मदहोशी साथ लिए जाती हो
या खुले काकुलों का तिलिस्मी
राज़ पुराना वो ही है ?

किलस जाने पे क्या अब
साँस ठहर के लेती हो
या मुक्का दिखाने का
अंदाज़ पुराना वो ही है ?

क्या साँसों की छुअन से
अब भी सिहर जाती हो
क्या होठों के चुभन से
ऐतराज़ पुराना वो ही है ?

क्या अधजगी अँगड़ाई का
सोज़ पुराना वो ही है
क्या मिसकियों की तान का
साज़ पुराना वो ही है ?

बंदरिया सी कभी डायन सी
हरकतें थीं सारी शैतान सी
क्या आसमां छू लेने का
परवाज़ पुराना वो ही है ?

क्या अब भी बुलबुल सी हो
बचपन सी चुलबुल सी हो
क्या मार ठहाके हँसने वाला
मिज़ाज पुराना वो ही है ?

माना हम दूर भले जां
दिन यहाँ रात वहाँ जां
सुलग रहा था इश्क कल जो
आज पुराना वो ही है …

 

This poem has its inspiration from a poem by Piyush Mishra that I read in his book “Kuch Ishq Kiya Kuch Kaam Kiya…”.

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