जाने क्या ढूँढते हैं
बारहा मोबाईल देखते हैं
वो जो ना आने वाले हैं
हम उनकी राह तकते हैं
उम्मीद उँगलियों की आदत है
ये आदत कैसे भुलाते हैं
हफ़्ता तो बीत जाता है पर
तुम बिन इतवार बहुत सताते हैं
जो तुम कहती थी
कुछ मेरी तारीफ़ करो
बड़े दिनों से लिखा नहीं
कुछ नज़्में ग़ज़लें तामीर करो
इन्कार इज़हार के ख़फ़ा होने मान जाने के
सिलसिले वो बहुत याद आते हैं
अब ना कोई हमसे रूठता है
अब ना हम किसी को मनाते हैं
हफ़्ता तो बीत जाता है पर
तुम बिन इतवार बहुत सताते हैं
सहरा ने खोली आँखें धुँधली
कोहसारों ने ओढ़ी चादर उजली
चम्पई धूप उधार में ले के
शाखों ने नई क़बा पहन ली
क़रीब आ गए सुबह-ओ-शाम
अँगीठी संग जलती रात अकेली
बाहर तो मौसम बदल गए पर
अन्दर से सावन नहीं जाते हैं
हफ़्ता तो बीत जाता है पर
तुम बिन इतवार बहुत सताते हैं
एक दुसरे के हासिल हम दोनों
सुकूत-ओ-साहिल हम दोनों
मात्रा बिन आखर जैसे
अधुरे जुदा पर कामिल हम दोनों
देख कर अब तस्वीर पुरानी
गुज़ारते हर नया दिन हुम दोनों
कहती थी इश्क अपना जावेदानी है
देखो अब दास्ताँ-ए-फ़ानी सुनाते हैं
हफ़्ता तो बीत जाता है पर
तुम बिन इतवार बहुत सताते हैं
Shaandaar!
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