कुछ लिखो

अच्छा सुनो, बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं कुछ लिखो ना … मेरी आँखों पे ना सही उनपे चढ़े चश्मे पे लिखो काजल की महीन लकीर पे लिखो बालों की ख़ुशबू लपेटे हुए मेरे जूड़े पे लिखो मेरी बाली, मेरी अँगूठियों पे लिखो पाँव में बँधे काले धागे पे लिखो मेरा चेहरा, मेरी काया नहीं…Read more कुछ लिखो

सिगरेट

मुझे कभी कभी सिगरेट पीने की आदत है शांत एकाकी नुक्कड़ पे सवाली निगाहों से दूर उँगलियों के बीच से एक लम्बी कश और साँसों के साथ छोड़ देता हूँ मैं कुछ धुँधले सफ़ेद धुएँ कानों से गुज़रती हैं सुगबुगाती तम्बाकू की आवाज़ें तल्ख़ी आती है ज़बां पे फुंकता है कलेजा होंठ भी थोड़े सुलग…Read more सिगरेट

सब्र और तलब

वो कहती है इतनी भी क़ुर्बत अच्छी नहीं कुछ तो सोचो ज़माने की तोहमत अच्छी नहीं सरे-राह तकते हो शर्मसार मैं हो जाती हूँ तुम्हारी आँखों की ये शरारत अच्छी नहीं ये क्या जो बारहा हाथ थाम लेते हो थोड़ा दूर रहो लज़्ज़त-ए-सोहबत अच्छी नहीं डर लगता है शहर की आश्ना निगाहों से पीहर में…Read more सब्र और तलब

शब-ए-फ़िराक़

ये चाँद क्यूँ धुआँ-धुआँ सा है, ये रातें भी सुलग रही हैं क्या बिस्तर की सिलवटें रुस्वा हैं अब वो छत पे अकेली टहल रही है क्या मेरी कविताओं में मुझे देख के कहीं बर्फ़ सी पिघल रही है क्या ख़्वाबों का शहर आज बयाबां सा है सन्नाटे हंगामी नींद भटक रही है क्या भीड़…Read more शब-ए-फ़िराक़

जानेमन

ना बिखेरते वो रुख़-ए-फ़रोज़ाँ पे ज़ुल्फ़ें क्या चाँद सूरज क्या दिन और रात होता उठे जो पलक रंग-ओ-आहंग जी उठता झुके तो शाम-ए-उदास फ़ना होता घुल जाएँ इक दूजे में दिलसोज़ ज़ायका बन मैं अब्र की ठंडी नमीं वो धूप का अफ़्शाँ होता दिल-ए-बेकल भटका है फ़लक पे एक सुकूनगाह नशेमन अपना भी होता वो…Read more जानेमन

सिर्फ़ तुम

तुम मेरी रहगुज़र मेरी मंज़िल भी मेरा सफ़ीना मेरा साहिल भी तुम रास्ते का क़याम हो थके मन का इल्हाम हो दोपहर में बरगद का रूप हो शाम की ठंडी सिमटी धूप हो ख़त हो बशीर का या ग़ज़ल मीर की कलमा इक़बाल का या बरकतें फ़क़ीर की तुम मेरी नज़्मों में हो ग़ज़लों में…Read more सिर्फ़ तुम

काला चश्मा

अब्र सरीखे नूरानी चेहरे पे कमसिन कमली काला चश्मा है जिस्म में तराश समंदर की चाँद की परछाई काला चश्मा लटों को समेटता कभी होंठों को छूता कितना खुशनसीब तेरा काला चश्मा रातें लुट गईं आशिक़ों की दिन में निकला जब काला चश्मा इश्क़ परस्तों की आह नज़र पासबाँ-ए-हुस्न है काला चश्मा ग़ज़ाल आँखें भी…Read more काला चश्मा

पशेमानी

कभी मेरी भी मजबूरियाँ समझ गए होते तो ये हिजाब-ए-दरमियाँ समझ गए होते नश्तर सिर्फ़ तुम्हारे ही दिल पे नहीं चला था कभी मेरी भी गली से तुम गुज़र गए होते दूर कहीं निकल गए हम देरीना रस्ते पे मैं तो नासमझ थी तुम ही पलट गए होते नज़र बचा कर लौट गए कल महफ़िल…Read more पशेमानी

Hope

चलो मुस्कुराने की वजह ढ़ूँढ़ते हैं ज़िंदगी तुम हमें हम तुम्हें ढ़ूँढ़ते हैं ख़ानाबदोशी में उलझें हैं सारे रहगुज़र इस सिफ़र में कोई सफ़र ढ़ूँढ़ते हैं कितना शोर है माज़ी के सियाह जंगल में एक नई सहर कोई नई ग़ज़ल ढ़ूँढ़ते हैं भटक रहे हैं कब से अब्र के टुकड़े सा बरस जाएँ कहीं वो…Read more Hope

यूँ सर-ए-आम …

यूँ सर-ए-आम मत लो अँगड़ाई, कल अख़बार में जाने कितने घायल मिलेंगे अपनी लरज़ती कमर के जो बिखेरती हो  क़रीने तुम्हारी गलियाँ तो आबाद बाक़ी शहर बरबाद मिलेंगे समेट लो दराज़ काकुल फिर से धूप कर दो दीद-ए-आफ़ताब की रातों को सहर मिलेंगे कोई ख़त में अपने होंठों के दो महकते चाँद दे दो तुम्हारे आशिक़ रात…Read more यूँ सर-ए-आम …